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JEEJAJEE THE AAYE RASAM NIBHAANE PAHALEE HOLEE

जीजाजी थे आये रसम निभाने पहली होली
(प्रेमोन्मयी सरस रति सरिता-२१५)
_____________________________  


जीजाजी थे आये रसम निभाने पहली होली  
गदबद उठी जवानी साली थी जैसे हमजोली
केसर घुले गुलाब रूप की रंगत चुलबुल छोरी
लंबी चोटी काया कमसिन मनहर मुखडा गोरी

रह-रह बतियाती चपला थी छेड़े हरदम जाती
मैं बचता डर घेर मुझे फंदे में वह थी लाती
पहली होली ससुरारे था आया रस्म निभाने
सोचे सिहरा मन रह आया हालत क्या हो जाने

मुख सहमा देखे मेरा साली पहले मुसकाई
बोली रंग उड़ा ज़नाब क्यों होली अभी न आई
पर बतलाऊँ कल गर डर हो किये जतन छिप आना
ढूंढ पकड़ पाई न बचो तब करना नहीं बहाना


खुली नींद जब सुबह रही साली झकझोर जगाती
किलक रही थी चलिए जी अम्मा है तुम्हें बुलाती
‘अच्छा..अच्छा कहे उतरता मैं नीचे जब आया
तैरी इक मुस्कान अनोखी सब के चेहरे पाया

देखे मुझको आँखें सब छिप-छिपती सी मुसकाईं
कहे ‘मुबारक होली’ दी सब ने मिल खूब बधाई
बोली चुलबुल साली जीजा ‘तुम पर बलि-बलि जाऊँ
लगते गज़ब हसीन आज उफ़ क्या कह मैं बतलाऊँ

पूछा ‘सच?’ तो दिये हाथ दरपन बोली ‘सच मानो’
हो परतीत न तो लो देखो चेहरा तब खुद जानो’
देखा एक झलक में चेहरा पुता खीझ मैं आया
समझ गया चुलबुल ने सोते मुझपर रंग लगाया  

सुबह-सुबह शुरुआत हुई यूं रह बुद्धू मैं हारा    
बेबस सबके संग हंसा साली को छिपे निहारा
काट चिकोटी बहना उसकी बोली “मन ली होली
अब न सताना जीजाजी को” दिये हिदायत बोली

आँख तरेरे जीजी पर साली हंसती आई कह
“जीजा मेरे छेड़ूँगी मैं जीजी तू जल-जल रह”
रहा सोच “साली यह नटखट कैसे मौक़ा पाऊँ
छेड़ चुलबुली इस कमसिन को कैसे मज़ा चखाऊँ”


मौक़ा सूना मिला निमिष को उस जाती पर लपके
भर मुठ्ठी में केश खींच लपेटा धर पीछे से झपटे
बोली वह “उइ हा क्या करते जीजाजी मर जाऊँ
छोड़ो ना, कह जीजी से वरना मैं मज़ा चखाऊँ”

झाँक आँख में उसकी दोबारा खीझा रह आया
सुने बात उसकी मन ग़मगीन हुआ रह आया
बोला “छेड़ूँ अब न तुम्हें कैसी हो तुम यह जाना
बात न करना तुम भी रहना दूर न मुझे सताना”

“बोली वह “ओ..हो जी देने मुझे हिदायत आये
पर साली यह कम न छेड़ रक्खूं मैं और सताए
बेचारे जीजाजी उइ हा तरस मुझे है आए
बस इतने से रहे हार साली से पार न पाए”  
 
भागी ‘बाय’ कहे “जीजाजी दिल पर मत ले लेना
नहीं रूठना मुझसे पीछे जो चाहे कर लेना”
“आह करूँ क्या इसका नाज़ुक कमसिन नटखट भोली”  
मरा सोच “क्या झपट लुभाती मन को बन हमजोली”  


सुबह-सुबह निबटा सब टल आई होली की आफत
सोचे रहूँ चैन से दिन भर पाई मैंने राहत  
कटी सुबह यूं ऊपर जा मैं रहा चैन से लेटा
सूनी खिलखिलाहटें दुपहरी फिर औचक उठ बैठा

मीठी खनक क्वारियों की गूंजी नीचे थी जाती
‘जीजाजी हैं कहाँ’ पूछती साली से थी आतीं  
कह बोले ‘ठहरो..ठहरो’ जब तक मैं समझा पाता
“होने दो तैयार ज़रा पल भर को मैं हूँ आता”

घेर कमर से पीछे से बाँधे कस साली रह आई
पड़ी झपट सखियाँ मलती रंग मुख पर किये पुताई
चुभी गुदगुदी गदबद छाती कहे न मैं कुछ पाया
रहा बंधा बांहों में तन गदगद लहराता आया

सना रंग मुख छूटा जब सखियाँ रह आए खेलीं
रंग धार सर पर चुलबुल ने औचक रखे उड़ेली
सर से पाँव पुता रंग मनमारे भीगा मैं आया
बजा तालियाँ उधर सभी ने हंस-हंस मज़ा उठाया
रही किलक सखियाँ सब “आह मज़ा आया रे” बोलीं
कभी न भूलो हाय मुबारक जीजाजी यह होली”

बोली “फिर चूके जनाब तुम फिर मैंने नहलाया
कह मुसकाई मैं जीती जीजा को हरे हराया
रंगा सतरंगी रंगों में मुखडा उसका देखा
रह मसोस मन  चुटक गाल मल दी गुलाल की रेखा

हंस बोली साली प्यारी “अब जितना रंग लगाओ
बचा न ठौर चढ़े रंग कैसे जीजाजी बतलाओ”
खीझ छिपाई मैंने कह “हारा मैं हाँ तुम जीतीं
सुन पर चुलबुल अभी महूरत छोडूं तुझे न रीती
तू नटखट बच पाती कैसे तक मौक़ा मैं आऊँ
भूले कभी न डाले तुझमें ऐसा रंग चढाऊँ”

चुलबुल चंचल गदराई देखे कनखी मुसकाती
चढ़ी जीत की खुशी जीभ ठुनकाए रही चिढाती
मौक़ा ताक चुहल करती छू चुटक गुजरती साली
रही छेड़ती रह-रह मौज उठाए वह मतवाली
इधर थामता मन मैं उधर नशा वह रही चढ़ाती
लुभा अदाओं से चपला वह लंड खड़ा कर जाती

चलो हुई छुट्टी अब मन-मन रक्खा मैनें माने
मन ली होली कोई न आएगा अब मुझे सताने
मल-मल रंग छुडाए मैनें छककर खूब नहाया
रंग रंगीली चुलबुल का पर मन से छूट न पाया

वह मस्ती की छेड़ अदा वह मतवाली वह सूरत
रही आँख में अड़ी कमर घेरी वह प्यारी मूरत  
रह आया अफसोस भरा मैं हाय न कुछ कर पाया
कसे चपक छाती से क्यों न उसे चूमे रंग आया

‘लाचारी कैसी यह हा’ मन रहा सोचता बैठा
फैल-फूल लंबा फन्नाया तन तन लहरा ऐंठा  
रह-रह दबा संभाला मैंने रह-रह वह उठ आता
“आह..आह प्यारी चुलबुल कब लूँ” रटता रह जाता

बहना थी उसकी अशुद्ध तन रीता वह रख आई
इधर चढ़ाती नशा मदभरी यह थी मुझे लुभाई
रंग भरी होली यह कैसी मैं सूखा रह आया
सोच करूँ क्या इस भूखे का मन जो रहा सताया    


अलस दोपहर ऊपर कमरे में था लेटा पढ़ता
आती वह जब आँख मूँद सोने का उपक्रम गढता  
देखा दबे पाँव आयी औचक जाने क्या सूझी
रही बैठ चुप खाट पहेली रख मुझको अनबूझी

दिये हाथ भीतर कमीज़ पर हौले फिरी हथेली
जब तक समझूं वक्ष उदर रंग चली खूब अलबेली  
सोया जान मुदित मन उठ चुपके वह रही निहारे
झुकी परस चूमे कपोल उसने हौले तक द्वारे  

औचक धरी बांह मैंने वह चौंक पलट टकराई
गुदगुद छाती भिड़ी चिपक “उइ हा” कह वह शरमाई
बोली “हाय मरूं मैं छोड़ो क्या जीजाजी करते
देख न ले कोई यूं क्यूं हा नहीं तनिक तुम डरते”
बोला मैं “अच्छा सालीजी छोड़ अभी हूँ देता
रखो याद पर रंगूँ तुम्हें छोडूं न कहे मैं देता
छूटे भागी जीभ निकाले चिढ़ा कहा “देखूंगी
रंगते कैसे मुझे चतुर तुम मौक़ा तुम्हें न दूंगी”

यह था चौथी बार छेड़ती वह मुझपर थी छाई  
हाय करूँ क्या इक उदास सी खीझ रही थी आई
अंग शिथिल छितरा फैली शय्या पर सोई बेसुध
गदराया जोबन मासूम हुआ मन देखे धुक..धुक
मौक़ा था मौजूं सूझा मन ‘आह चलो बदला लूँ
रंगा खूब इसने अब मैं भी चूम कली को रंग दूँ
चढ़े रंग ऐसा जो रानी चुलबुल भूल न पाए
याद किये प्यारी होली यह हरदम भीग नहाए


ढली दोपहर भंग-रंग का चढ़ सुरूर था छाया
धोए-नहाए खा-पी छके सभी का तन अलसाया
‘उइ मां खेला रंग खूब कह चुरा नज़र अंगडाती
देख कहा चुलबुला प्यारी ने “ मैं हूँ सोने जाती”

रात उठे छत पर जा फिर मैं अपना सबक रटूँगी
बचे परीक्षा के दस दिन कैसे मैं पार करूंगी
चढ़ ऊपर कमरे में वह बिस्तर पर रह पड़ आई
देर रात तक बतियाए बाकी ने घड़ी बिताई  

रंग पुता मुख गदराई गोरी का झूला आता
कैसे कब किस रंग रंगूँ उसको सोचा मैं जाता


थका खूब बातें करते खिसका मैं मौक़ा पाए  
कर आराम ज़रा लूँ कहता मैं ऊपर था आए
देखा गुजरे द्वार बगल का रहा अधखुला आया
बेसुध अस्त-व्यस्त शय्या पर सोई चुलबुल पाया

उतर आसमां से ज्यूं सुन्दर परी बिछी थी आई  
थिर न रहा मन हुआ खड़ा उठ रमी आँख रह आई  
तृप्त हुई आँखें निहार गोरी का रंग निराला
पिये रूप-रस मन बोला लो प्यारी कसर निकाला

पलट घाघरा कटि,बुर,नाभि-कूप रानों को ताके
लपक अधर दे चूम चपा-चप रहा प्यार मैं थापे
रही अन्गुरियाँ हरित-गुलाल भरीं पट-कलिका फेरे
छाप रंग भर चले अधर उरु नाभि-कूप को घेरे
हुआ ढीठ मन संदेसा कुछ-कुछ लिखने हो आया
लिये रंग गाढा “जी करता है..” बस मैं लिख पाया

जैसे सपना प्यारा देखा खिले अधर मुसकाई
भरी नींद मदहोशी डूबी आँख न खुलने पाई
सपना जैसे कुनमुन कमसिन गदराई वह डोली
मुसकाई हौले पर शुकर न आँखें उसने खोली
छाप रंग ढक बदन पलट चुप-चुप खिसका मैं आया
पल न लगा मुसकाया मैं यूं रंग साली को आया

१०
ढली शाम भी चढ़ी निशा रह शोर थम चला सारा  
दस के पार घड़ी पहुंची थी बजने आए ग्यारा
खा-पी ऊंघ थके सब पर चढ़ नशा नींद का छाया
बेबस छत पर करवट-करवट बस जागे मैं आया

मौसम प्यारा ठण्ड गुनगुनी आसमान में तारे
आयी नींद न कोने छत के तकता खड़ा सितारे
पाया औचक तभी पीठ पर सिहरन गुदगुद छाई
चिपकी टिका कपोल सिसकती वह प्यारी थी आई

घेरे कमर वल्लरी सी बाँहें कस लिपटाए थी
रगड कपोल जकड़ पीछे कंधों पर टिक आए थी  
रखे झिंझोड़ सिसकती वह बुदबुद कहती आई “हा ..
रखी अधूरी बात कहो ना आगे “जी करता क्या”
“हाय मर गयी क्यों वैसा कर तुमने जादू डाला
करना माफ हुआ बेबस मन बदन न गया संभाला
तुम भोले प्यारे कितने मैंने रख छेड़ सताया
हुई तुम्हारे बस बदला ले कर लो जो मनभाया”

पलट खींच झिंझोड़ बदन प्यारा मैंने चिपकाया
गूँथ अधर रस अधर निचोड़े उरझ चूमता आया
बोला “मरा अदा पर तेरी क्यूं कहती यूं प्यारी
पाने तुझको रहा बिकल मैं तड़प प्यास में भारी
‘आह..आह’ आया सुयोग मिलने की आई बारी”  
उठा समेटे गोद कहा “चल रंग अब बरसाएं री”

गदगद लहराती उछली टांगें वह फेके आयी
‘आह..आह’ कर बंधी चिपक सर वह कस रहे दबायी
बोली “हुई निठुर तुमको मल-मल डाले खूब सताया”
रुको न आह चढूं रंग तुम संग हुआ बिकल तन आया”    

फाड़ धंसा जाँघों में बौराया बुर चूमे आया
“आह न रह जाए अब” बोले दे बुर लंड टिकाया
फंसा चूत-पट गज़ब सुपाडा कसा चूत में सरका
“आह.आह उइ मर जाऊँ” बोली “हो आया मन का”

मोड टिका घुटने कटि उसके चढ़े जांघ मैं आया
खड़ा लंड फन्नाया ताके बुर-पट ठेल धंसाया
फूली जकड़ सुपाडा बुर-मुख ’उइ..हा’ कह वह डोली
“हा..धीरे अब’ कसे पीठ बाँहें हौले वह बोली

हौले ठुनके बुर-मुख पिघला लंड माप गहराई
कसे जबर बुर-तल फाँसे चल आया किये चुदाई  
सन-सन रस बुर ‘चप्प-चपाचप’ फाड़ चूत को मापे
चढ़ा नशे में लंड चूत नाज़ुक में दौड़ा आगे  

पटके ‘घप्प’ चरचरा लौड़ा पेले चूत समाता  
कसे जकड़ता चूत लचलचा उठा खींच वह लाता
दौड़ पटकने फिर उठाता वह कस यह खींचे आती  
उरझ गाँठ से फंसी मुहाने किये ‘पुक्क’ थम जाती

कसक दहकती मौन चाहतें भर-भर आहें रीतीं
इक-दूजे में गुंथे सान रति-रंग रात वह बीती
खेले मिले चूत-लौड़े संग घुले बदन यूं आये
बूझ न परे धंसे घुसता है किसमें कौन समाये

डुली लपालप कसी जकड़ बुर रही लंड से खेले
मगन प्रेम दे लंड उधेड़े रहा खूब बुर पेले
लपट-झपट कस खींचे लौड़ा रही खूब बुर छेड़े
भर उछाह लौड़ा गति दूनी बुर को रहा उधेड़े

बदली ‘चप-चप’ ‘धप्प-धप्प’ में चूत मगन सुन आई
पटके झटके ठोके लीले होड़ रही फिर छाई
सन्नाटा सब मौन चांदनी में तन डूब नहाए
'घप-घप’ ‘पुक-पुक’ रंग-राग-रति धुन सुन-सुन रह बौराए


इधर ताल गुंथ उधर थिरकते अधर उचारे जाते
‘हा प्यारे’..हा प्यारी’ उइ..उइ’ ‘हाय गज़ब क्या ढाते’
चढती निशा निहारे तारे तकते आए इक-टक
मगन लंड-बुर जीजा-साली खेले पहट भए तक
सनसन कडकी लहर बिजुरियाँ चमकी मुख पर छाईं
देखे चेहरा दमक ललाया आँखें नहीं अघायीं
उछली पोर-पोर भीनी डूबी बुर-लंड समाई
फुरक-फुरक फुरकी झर साने बुर लौड़े को आई
चुदी लचा-लच चूत डुला कटि ‘लप्प-लप्प’ मतवाली
मनी खूब होली यूं लपट भिड़े जब जीजा साली
बजे नगाड़े खूब रात भर ‘पुक..पुक..पुक’ बुर बोली
रंगी लंड के रंग चुदी बुर की होली यूं हो ली

खूब चुदी छक अंगड़ाई वह आखिर उठकर भागी
‘आह गज़ब बुर प्यारी फिर लूँ’ कह अँखियाँ रह ताकीं
मनी रात झरती यूं होली खूब रंग बरसाए
चढ़ा रंग मिल उस दिन फिर जो छूटा नहीं छुडाए

मिल-मिल आँखें टकरा यादें बरसी रंग-रंग जाती  
मचली उमड़-घुमड़ उस होली को तरसी झुक आतीं  
मिलन, छेड़, वह खेल, अदाएं, वह कमसिन बुर साली
रहा चढ़ा रंग चटक खूब होली पहली मतवाली    

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Written by premonmayee
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